बहाने की बीमारी: एक दिन मुझे साथ लेकर नानी जी हमारे पड़ोसी सुधाकर काका को देखने गई जो बीमार थे। वे अस्पताल में थे। दे अस्पताल जाने का यह मेरा पहला था।
एक बड़े से वार्ड में कई एक जैसे पलंग लाइन से लगे हुए थे। सब पर एक जैसी सफेद चादर और लाल केवल सफेद दीवार, ऊँची छत, खिड़कियों पर हरे परदे और फर्श एकदम चमकता हुआ। एक पलंग पर सुधाकर काका लेटे हुए थे। एकदम पास पहुँचने पर दिखाई दिया।
हमें देखकर सुधाकर काका जैसे खुश हो गए। नानी जी ने उनके सिर पर हाथ फेरा और उनके सिरहाने खड़ी हो गई और हालचाल पूछने लगी।
अस्पताल का माहौल मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा था। बड़ी-बड़ी खिड़कियों के पार हरे हरे पेड़ झूम रहे थे। न ट्रैफिक का शोरगुल, न धूल, न मच्छर-मक्खी…। सिर्फ़ लोगों के धीरे-धीरे बातचीत करने की धीमी-धीमी गुनगुन । बाकी एकदम शांति।
तभी सफ़ेद कपड़ों में एक नर्स आई। नर्स ने नानी जी को देखकर अभिवादन में सिर हिलाया और काका को दवा खिलाई। नानी जी काका के लिए साबूदाने की खीर बनाकर लाई थीं। नर्स से पूछा कि खिला दूँ क्या? नर्स के हाँ कहने पर उसके जाने के बाद नानी जी ने चम्मच से धीरे-धीरे काका को साबूदाने की खीर खिलाई। काका ने बहुत स्वाद लेकर खीर खाई।
क्या ठाठ हैं बीमारों के भी। मैंने सोचा… ठाठ से साफ़-सुथरे बिस्तर पर लेटे रहो और साबूदाने की खीर खाते रहो ! काश ! सुधाकर काका की जगह मैं होता ! मैं कब बीमार पहुँगा !
रोज बाद एक दिन मेरा स्कूल जाने का मन नहीं किया।
कुछ मैंने होमवर्क भी नहीं किया था। स्कूल जाता तो जरूर सजा मिलती। मैंने सोचा, बीमार पड़ने के लिए आज का दिन बिलकुल ठीक रहेगा। चलो बीमार पड़ जाते हैं।
मैं रजाई से निकला ही नहीं। नानी जी उठाने आई तो मैंने कहा, “मैं आज बीमार हूँ।” “क्या हो गया?”
“मेरे सिर में दर्द हो रहा है। पेट भी दुख रहा है और मुझे
बुखार भी है।” नानी जी चली गई।
मैं रचाई में पड़ा पड़ा घर में चल रही गतिविधियों का अनुमान लगाता रहा। अब छोटे मामा नहाकर निकले। अब कुसुम मौसी रोज की तरह नाश्ता छोड़कर कॉलेज बस पकड़ने भागी। अब मुन्नू अपना जूता ढूंढ़ रहा है। अब छोटे मामा ने साइकिल उठाई। अब सब चले गए। अब घर में मैं अकेला रह गया।
पता नहीं कब झपकी-सी आ गई।
तभी फर्श पर पैर घसीटते नाना जी आए “क्या हो गया? क्या हो गया?”
“बुखार आ गया।” मैंने कराहते हुए कहा।
” देखें!” नानाजी ने रजाई हटाकर मेरा माथा हुआ पेट देखा
और नब्ज़ देखने लगे।
इस बीच नानी जी भी आ गई। ” क्या हुआ?”. नानी जी ने पूछा।
“बुखार तो नहीं है।” नाना जी बोले।
” आपको पता नहीं चल रहा। धर्मामीटर लगाकर देखिए।” मैंने कहा।
मुझे पता था घर में कोई है नहीं। धर्मामीटर
लगा भी लिया तो देखेगा कौन? नाना जी
को दिखाई देता नहीं, नानी जी को देखना आता नहीं। वैसे धर्मामीटर मुँह में लेते ही उसे जोर से चबा लेने की इच्छा होती
है। बहुत ढूँढ़ा गया पर थर्मामीटर मिला ही नहीं। शायद कोई माँगकर ले गया था।
फिर नाना जी की आवाज़ आई, “ले, पुड़िया खा ले। ” न चाहते हुए भी मुझे कड़वी पुड़िया खाना पड़ी और काढ़े जैसी चाय पीनी पड़ी। फिर नाना जी बोले, “आज इसे कुछ खाने को मत देना। आराम करने दो। शाम को देखेंगे।” दोनों चले गए।
मैं पता नहीं कब नींद में गुडुप हो गया।
कुछ देर बाद जब मेरी आँख खुली मुझे बड़ी तेज़ इच्छा हुई कि इसी समय बाहर निकलकर दिन की रोशनी में अपनी गली की चहल-पहल देखें। देखा जाए कि चंदूभाई ड्राइक्लीनर क्या कर रहे हैं? तेजराम की दुकान पर कितने ग्राहक बैठे हैं? महेश घी सेंटर ने सड़ी मलाई का भगोना आँच पर चढ़ाया या नहीं और टेलीफ़ोन के तारों पर कितनी चिड़ियाँ बैठी हैं? लेकिन मजबूरी थी। चाहे जितनी ऊब हो, लेटे ही रहना था।
कुछ देर इधर-उधर की, स्कूल की दोस्तों की बातें सोचता
रहा… फिर लेटे-लेटे पीठ दुखने लगी तो उठकर बैठ गया। लेकिन बाहर कुछ आहट होते ही फिर से लेट गया । नाना जी आए। बोले, “अब कैसा है सिरदर्द?” मैंने कहा, “ठीक
है।” फिर भी एक पुड़िया और खिला गए ।
अचानक मुझे भूख- सी लगी। फल या साबूदाने की खीर मिलने की उम्मीद की तो सुबह ही हत्या हो चुकी थी। अब नानी जी से जाकर कहूँ कि भूख लग रही है तो वे क्या करेंगी? ज़्यादा से ज्यादा यही कि दूध पी ले। या नाना जी से पूछने चली जाएँगी- वो कह रहा है भूख लगी है। और फिर नाना जी क्या कहेंगे? वही जो सुबह कह रहे थे- तबीयत ढीली हो तो सबसे अच्छा उपाय है भूखे रहना। इससे सारे विकार निकल जाएँगे।
क्या मुसीबत है! पड़े रहो! आखिर कब तक कोई पड़ा रह सकता है? इससे तो स्कूल चला जाता तो ही ठीक रहता । सज़ा मिलती तो मिल जाती। कितना मज़ा आता जब रिसेस में ठेले पर जाकर नमक मिर्च लगे अमरूद खाते कटर-कटर। फिर झपकी लग गई।
लेकिन भूख के कारण ठीक से नींद भी नहीं आ रही थी। और आँख जरा लगती भी तो खाने ही खाने की चीजें दिखाई देतीं। गरमागरम खस्ता कचौड़ी… मावे की बरी… बेसन की चिक्की… गोलगप्पे और सबसे ऊपर साबूदाने की खीर! पता नहीं क्यों साबूदाने की खीर सिर्फ़ उपवास और बीमारी में ही बनाई जाती है। जैसे गुझिया सिर्फ़ होली दीवाली और पंजीरी सिर्फ़ पूर्णिमा के दिन ही बनाई जाती है। क्यों? क्या ये चीजें जब इच्छा हो तब नहीं बनाई जा सकतीं। कोई मना करता है?
हे भगवान! यह तो अच्छी खासी बोरियत हो गई । पूरा दिन कोई कैसे लेटा रहे? और शाम को… क्या शाम को भी नाना जी बाहर जाने देंगे? सारे बच्चे हल्ला मचाते हुए आँगन में खेल रहे होंगे और मैं बिस्तर में पड़ा झख मार रहा होऊँगा। और बनो बीमार। और आज दिया गया होमवर्क ? किससे कॉपी माँगोगे?
पास के कमरे में होती खटर पटर से अंदाजा हुआ कि मुन्नू स्कूल से आ गया है। तो क्या एक बज गया? अब बरतनों की आवाज़ आ रही है। शायद सब लोग खाना खाने बैठ रहे है। मुन्नू एक बार भी मुझे देखने नहीं आया आया भी होगा तो दबे पाँव आया होगा और मुझे सोता जान लौट गया होगा।
वे खाना खा रहे हैं। चवाने की आवाजें आ रही हैं। देखो। उन्होंने एक बार भी आकर नहीं पूछा कि तू क्या खाएगा? पूछते तो मैं साबूदाने की खीर ही तो माँगता कोई ताजमहल तो नहीं माँग लेता। लेकिन नहीं। भूखे रहो!! इससे सारे विकार निकल जाएँगे। विकार निकल जाएँ बस। चाहे इस चक्र में तुम खुद शिकार हो जाओ।
आज क्या खाना बना होगा? खुशबू तो दाल-चावल की आ रही है। अरहर की दाल में हींग-जीरे का बयार और ऊपर से बारीक कटा हरा धनिया और आधा चम्मच देसी घी। फिर उसमें उन्होंने नीबू निचोड़ा होगा। थोड़ा-सा इस बीमार को भी दे दे कोई
लेकिन खुशबू तो किसी और चीज़ की है। क्या हरी मिर्च
तली गई है? उसे दाल-चावल में मसलकर खा रहे हैं। जब रहा नहीं गया तो मैं रजाई फेंककर खड़ा हो गया। दबे पाँव दरवाजे तक गया और चुपके से झाँककर देखा ।
हाँ, दाल-चावल, तली हुई हरी मिर्च ।
लेकिन मुन्नू आम चूस रहा था। आम! इस मौसम में? ज़रूर मुंबई वाले चाचा जी ने भेजे होंगे। कैसे चूस रहा है। पूरी
गुठली मुँह में ठूसे। जैसे आम कभी देखे न हों। नदीदा !
भुक्कड़ कहीं का। पूरा हाथ भी सान रहा है।
मैं जलन, गुस्से और कुढ़न में पाँव पटकता वापस बिस्तर में आ गया। उस पूरे दिन मुझे भूखे पेट ही रहना पड़ा। सारे विकार निकल गए।
इसके बाद स्कूल से छुट्टी मारने के लिए मैंने बीमारी का बहाना कभी नहीं बनाया।